Tuesday, October 10, 2017

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समझदारी

टिम टिम करती डिबिया के हल्के लौ जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए होले होले बह रही हवाओं से लड़ रही है , कुछ किट-पतंगे आस पास अपने अंतिम समय मे पंख झार कर इधर उधर हो के अपने जीवन का अंत बहुत मार्मिक तरीके से कर रही है वही 2 बच्चे बोरा बिछा के हिंदी के किताब उल्टाये कभी उन्न कीड़ो से खेल रही है कभी रिफिल का फुका बना के आपस मे रमे है।मा चूल्हे के पास पसीना पौछती चिल्ला रही होती है कि जल्दी से पढ़ो खाना बनने ही वाला है फिर जल्दी सो जाना । बच्चे एकाएक से सारा काम छोड़ रोज वाली कविता आज भी गाने लगता है ... मा उधर आंच लगाती और धुंआ फूंकती हुई बौखला सी गयी है मगर बच्चों को कैसे भूखे सुला सकती है, अचानक वहां उपयोग कर रही डिबिया ,तेल के अभाव में बूत जाती है , उसने सोची थी कि कुछ दिन और तेल चल ही जायेगा मगर वह अभी अभी उसे धोखा दे दिया , फिर उसने बच्चों को अपना डिबिया लाने कही ,बच्चें खुशी से डिबिया माँ तक पंहुचा दिया , इस डिबिया में भी तो बाती ही जल रही थी लौ पूरा लाल और काली धुंआ छोड़ रही थी और ये भी बुझने ही वाली थी । मा ने जैसे तैसे खाना बनाई और बच्चों के लिए परोस दी , लेकिन तब तक इस डीबीए ने भी हार मान ली ।। अब क्या किया जय , घर में तेल नहीं है ,डीलर ने भी कहा की दिवाली में ४ दिन बाकी है एक दिन पहले तेल बांटा जायेगा उसने सोची इस अँधेरे में कैसे क्या किया जाय चाँद भी कुछ पख मार के ही उगेगा , अँधेरे में हाथो हाथ नहीं दिख रहा ,किट पतंग में इतने उड़ रहे थे कैसे बच्चे खाना खाये |फिर सोची जाती तू परोसी से ही मांग लाती हु कोई तो होगा जिनके यहाँ बिजली है और उसने दिवाली के लिए तेल बचाया होगा |वो एक एक कर के सब के घर से पूछ आयी मगर सभी ने एक ही बात कही की कोटा से तेल नहीं मिला और डीलर को खड़ी खोटी सुना दिया |अंतिम में निराशा को हाथ में लिए माँ वापस घर पहुँचती है जहाँ बच्चे आपस में दिवाली और मेला के बातो में मसगूल थे ,पास में सिक्का नहीं था मगर झूले और मिठाइयों के बारे में प्लान कर रहे थे |माँ के आते ही सब खाने के लिए माँ को कहता है जल्दी से डिबिया जलाओ और खाने दो माँ बहुत भूख लगी है |माँ ने कहा आज अलग तरीके से खाएंगे हम लोग , और कुछ जलावन के टुकड़े को एक जगहाँ कर उसमे आग लगा के सब खाना खाते है बच्चे बात को शायद समझ चुके थे बिना किसी नखरा के भर पेट खाना खा के खटिया पे चले गए ,माँ भी टूटी चौकी पे सोने चली गयी ... , दूसरे दिन से तेल के आस में सूरज रहते ही खाना बना के खा लेती है .. देखते देखते ४ दिन बीत जाता है और दिवाली आ जाती है लेकिन डीलर और उनके तेल का कोई खबर नहीं ,अब क्या किया जा सकता है ,पैसे उतने नहीं थे फिर भी कुछ के मोमबत्ती लायी ताकि आंगन में अँधेरा न रहे पर्व के दिन भी |शाम हुई दोनों बच्चो ने सरे मोमबती घर के आस पास और आंगन में जला दिया मगर ये कितना देर उजाला दे सकता था ,वही सारे परोसी के घर पे डिबिया ,तेज लौ के साथ जल रहा था , मगर इस परिवार में किसी के पास कोई शिकायत या प्रश्न नहीं था की जब तेल बांटा ही नहीं गया तो सबके मशाल कैसे जल रहे है| बच्चे ने एक बार भी पटाखा या फुलझरी की मांग माँ से नहीं की और वो मोमबत्ती से ही खेलते रहे शायद उन्हें समझदारी उम्र नहीं गरीबी ने दे दिए थे |माँ दूसरे दिन के बारे सोचती और पैसे को जोड़ती रही ....